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E-ISSN: 2582-8010
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Impact Factor: 9.56
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Volume 6 Issue 7
July 2025
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बौद्ध धर्म में शिक्षा पद्धति: एक दार्शनिक और ऐतिहासिक अध्ययन
Author(s) | Mohan Singh |
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Country | India |
Abstract | भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा में बौद्ध धर्म एक अत्यंत प्रभावशाली और परिवर्तनकारी धारा के रूप में उभरा। यह केवल धार्मिक विश्वासों का एक संप्रदाय नहीं था, बल्कि एक संपूर्ण जीवनदर्शन था, जिसने तत्कालीन समाज, राजनीति, संस्कृति और शिक्षा पर गहरा प्रभाव डाला। बुद्ध द्वारा प्रतिपादित विचार केवल आध्यात्मिक जागरण के नहीं थे, बल्कि उनमें सामाजिक असमानता, नैतिक पतन और रूढ़िवाद के प्रति एक मौन विद्रोह भी निहित था। बुद्ध के सिद्धांतों ने उस समय की ब्राह्मणवादी शिक्षा प्रणाली के विकल्प के रूप में एक सर्वसुलभ और समावेशी शिक्षा व्यवस्था का बीज बोया, जिसमें मानव-मूल्य, नैतिक अनुशासन और तर्कबुद्धि को केंद्र में रखा गया। बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति में व्यक्ति की चेतना को जागृत करने, आत्मविकास हेतु साधना करने, तथा समाज और विश्व के प्रति उत्तरदायित्व समझने पर विशेष बल दिया गया। यह शिक्षा केवल मठों या विहारों में सीमित नहीं रही, बल्कि यह जनता के बीच संवाद, श्रवण, मनन और चिंतन के माध्यम से प्रचारित होती रही। ‘अप्प दीपो भव’ — स्वयं दीपक बनो — जैसी शिक्षाएं आत्मनिर्भरता और बौद्धिक स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करती थीं, जो किसी भी शिक्षण व्यवस्था की मौलिक शर्त होती है। बौद्ध शिक्षा पद्धति का महत्व इस बात से भी स्पष्ट होता है कि इसके आधार पर अनेक महाविहारों की स्थापना हुई जो विश्व के पहले आवासीय विश्वविद्यालयों के रूप में उभरे। नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला, वल्लभी और ओदंतपुरी जैसे केंद्र न केवल भारत में, बल्कि तिब्बत, चीन, श्रीलंका, म्यांमार और सुदूर पूर्व एशियाई देशों में भी बौद्ध शिक्षा के विस्तार का माध्यम बने। इन संस्थानों में दर्शन, भाषा, चिकित्सा, गणित, खगोलविज्ञान, व्याकरण, तंत्र, योग, और तर्कशास्त्र जैसे विषयों का गहन अध्ययन होता था, जो तत्कालीन भारत को एक वैश्विक बौद्धिक केंद्र बनाता था। यह शोध-पत्र बौद्ध धर्म में शिक्षा पद्धति के उसी बहुआयामी स्वरूप का विश्लेषण करता है, जिसमें शैक्षिक उद्देश्य केवल मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति नहीं था, बल्कि एक ऐसे समाज का निर्माण करना भी था जो करुणा, समानता और विवेकशीलता पर आधारित हो। यह अध्ययन यह स्पष्ट करने का प्रयास करता है कि कैसे बौद्ध धर्म की शिक्षा प्रणाली ने ज्ञान को केवल विशेष वर्गों की संपत्ति बनने से रोका और उसे जनसामान्य तक पहुँचाकर सामाजिक लोकतंत्र की नींव रखी। इस शोध के माध्यम से यह भी अन्वेषित किया गया है कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली, जो आज केवल सूचना आधारित और व्यावसायिक हो चली है, उसमें बौद्ध शिक्षा के नैतिक एवं आत्मानुशासित स्वरूप की पुनःस्थापना कितनी आवश्यक और प्रासंगिक हो गई है। इस संदर्भ में बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति आज भी मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है — न केवल शिक्षा के क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक न्याय, नैतिक पुनरुत्थान और वैश्विक मानवीय मूल्यों के पुनर्निर्माण में भी। 2. शोध उद्देश्य (Objectives of the Study) 1. बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति के दार्शनिक आधारों का विश्लेषण करना। 2. प्राचीन बौद्ध शिक्षण संस्थानों की संरचना, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों का अध्ययन करना। 3. बौद्ध शिक्षा का सामाजिक, सांस्कृतिक और वैश्विक प्रभाव समझना। 4. आधुनिक शिक्षा प्रणाली में बौद्ध शिक्षा के मूल्यों की प्रासंगिकता का मूल्यांकन करना। 3. शोध पद्धति (Research Methodology) यह शोध गुणात्मक (Qualitative) और ऐतिहासिक-विश्लेषणात्मक (Historical-Analytical) पद्धति पर आधारित है। मुख्य रूप से प्राचीन ग्रंथों (त्रिपिटक), बौद्ध सूत्रों, ऐतिहासिक अभिलेखों, महाविहारों के विवरणों और विद्वानों के समीक्षात्मक लेखों का अध्ययन किया गया है। द्वितीयक स्रोतों में शैक्षिक शोध-पत्र, दर्शनशास्त्र पर आधारित पुस्तकें, पुरातात्विक विवरण और सांस्कृतिक अध्ययन सम्मिलित किए गए हैं। तुलनात्मक दृष्टिकोण से आधुनिक शिक्षा प्रणाली के साथ बौद्ध शिक्षण परंपरा का अध्ययन भी किया गया है। 4. बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति का दार्शनिक आधार बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति एक सुसंगठित और गहन दार्शनिक अधिष्ठान पर आधारित थी, जो ज्ञान (विद्या) और प्रज्ञा (विवेक) को जीवन मुक्ति का मार्ग मानती थी। गौतम बुद्ध ने स्वयं कहा — "अप्प दीपो भव" — अर्थात “स्वयं अपने दीपक बनो”, जो बौद्ध शिक्षा की आत्मनिर्भर और जागरूक दृष्टि को स्पष्ट करता है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को बाहरी अधीनता और अंधविश्वास से मुक्त कर आत्म-चेतना, नैतिक विवेक और करुणा की ओर उन्मुख करता है। बौद्ध शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल शास्त्रों का पारायण या धार्मिक कर्मकांड नहीं था, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक विकास के माध्यम से समाज के कल्याण की स्थापना करना था। इस हेतु बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग — जिसमें सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि जैसे आठ नैतिक-अध्यात्मिक अनुशासन शामिल थे — को शिक्षा की बुनियादी रीढ़ बनाया। इसके अतिरिक्त पंचशील (पाँच नैतिक सिद्धांत) — सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह — विद्यार्थियों और भिक्षुओं के लिए आचार संहिता का कार्य करते थे। बुद्ध ने शिक्षा को केवल वर्गविशेष की बपौती नहीं बनने दिया। वैदिक काल की परंपरा में जहाँ शिक्षा ब्राह्मणों और ऊँचे वर्णों तक सीमित थी, वहीं बुद्ध ने शिक्षा के द्वार शूद्रों, स्त्रियों, दलितों और सामान्य गृहस्थों के लिए भी खोल दिए। यह सामाजिक समता का एक क्रांतिकारी प्रयास था, जो शिक्षा के माध्यम से सामाजिक न्याय की स्थापना की ओर अग्रसर हुआ। बौद्ध भिक्षुणी संघ की स्थापना इसी उद्देश्य का परिचायक थी कि स्त्रियाँ भी अध्ययन, ज्ञान और मोक्ष की समान अधिकारी हैं। बौद्ध शिक्षा की भाषा भी एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक निर्णय थी। बुद्ध ने संस्कृत जैसी विशिष्ट वर्गीय भाषा के स्थान पर पालि और प्राकृत जैसी जनभाषाओं को अपनाया, ताकि ज्ञान जनसाधारण तक पहुँच सके। यह भाषिक लोकतंत्र भी बौद्ध शिक्षा की समानतावादी और प्रगतिशील सोच को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, बौद्ध शिक्षा में तर्क और संवाद को प्रमुख स्थान दिया गया। भिक्षुओं को केवल शास्त्र याद करने के लिए नहीं कहा गया, बल्कि वे संवाद, वाद-विवाद, और प्रश्नोत्तरी के माध्यम से विषय को आत्मसात करने के लिए प्रेरित किए जाते थे। बौद्ध विहारों में होने वाली धम्म चर्चा और शिल्प परिषदों में भागीदारी एक जीवंत शैक्षिक परंपरा का निर्माण करती थी, जहाँ ज्ञान का प्रवाह केवल एकतरफा नहीं बल्कि बहस और तर्क के माध्यम से होता था। बौद्ध शिक्षा पद्धति का दार्शनिक आधार इस दृष्टि से विशिष्ट था कि यह आत्मकल्याण और लोककल्याण के मध्य संतुलन बनाए रखती थी। यह शिक्षा व्यक्ति को केवल ज्ञानी नहीं बनाती थी, बल्कि उसे नैतिक, जागरूक, करुणाशील और सामाजिक रूप से उत्तरदायी नागरिक के रूप में भी विकसित करती थी। इस प्रकार, बौद्ध शिक्षा एक समग्र जीवन दृष्टि का संवाहक बनकर उभरी — जो आज भी प्रासंगिक है, विशेषकर उस युग में जहाँ नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व से शिक्षा धीरे-धीरे विमुख होती जा रही है। 5. बौद्ध शिक्षण संस्थानों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ-साथ भारत में एक ऐसी शैक्षिक परंपरा का विकास हुआ, जिसने न केवल धार्मिक और नैतिक ज्ञान का प्रचार किया, बल्कि विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, गणित, तर्कशास्त्र और भाषा जैसे लौकिक विषयों की भी समान रूप से शिक्षा दी। इस प्रणाली का केंद्रबिंदु बने महाविहार और बौद्ध विहार, जो समय के साथ विश्व के प्राचीनतम और सबसे समृद्ध आवासीय विश्वविद्यालयों में परिवर्तित हो गए। इन शिक्षण संस्थानों ने भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में बौद्ध ज्ञान की प्रतिष्ठा स्थापित की। यहाँ शिक्षा का उद्देश्य केवल धार्मिक प्रशिक्षण नहीं था, बल्कि एक व्यापक बौद्धिक और नैतिक परिपक्वता की प्राप्ति थी। • नालंदा विश्वविद्यालय (5वीं–12वीं शताब्दी): नालंदा, प्राचीन भारत का सबसे प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षण केंद्र रहा है, जिसकी स्थापना गुप्त वंश के कुमारगुप्त प्रथम (लगभग 5वीं शताब्दी) ने की थी। यह विश्वविद्यालय पूरी तरह आवासीय था जहाँ लगभग 10,000 छात्र और 1,500 आचार्य एक साथ रहते और पढ़ते थे। नालंदा में प्रवेश के लिए कठिन मौखिक परीक्षाएँ ली जाती थीं, जिनमें छात्र को शास्त्रों की गहरी समझ और तर्कशक्ति प्रदर्शित करनी होती थी। यहाँ बौद्ध दर्शन, तर्कशास्त्र (हेतुविद्या), व्याकरण, चिकित्सा, खगोलशास्त्र, गणित, और योग जैसे विषय पढ़ाए जाते थे। अध्ययन की पद्धति संवाद, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ और अनुशासन पर आधारित थी। नालंदा ने तिब्बत, चीन, कोरिया और श्रीलंका जैसे देशों से भी विद्यार्थियों को आकर्षित किया, जिनमें प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग (Xuanzang) भी शामिल थे। • विक्रमशिला महाविहार: पाल वंश के सम्राट धर्मपाल द्वारा 8वीं शताब्दी में स्थापित विक्रमशिला महाविहार नालंदा के समकक्ष शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया था। यह संस्थान मुख्यतः तंत्र, बौद्ध योग, और वज्रयान अध्ययन का केंद्र था। यहाँ भी शिक्षा की वही कठोर प्रणाली थी — छात्र का चयन परीक्षा के माध्यम से होता और शिक्षण का आधार अनुभव, विवेक, और नैतिक साधना होती। विक्रमशिला के विद्यार्थी तिब्बत और हिमालयी क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचारक बने। यहां से अतिश दीपनकर जैसे विद्वान निकले जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध शिक्षा और शास्त्रों का पुनरुद्धार किया। • तक्षशिला विश्वविद्यालय: तक्षशिला बौद्ध युग से पूर्व का एक प्राचीन विश्वविद्यालय था, जिसकी जड़ें वैदिक काल में भी देखी जाती हैं, किंतु बौद्ध युग में इसने विशेष ख्याति अर्जित की। यह भारत का एक प्रमुख शिक्षण केंद्र था जहाँ केवल बौद्ध धर्म ही नहीं, बल्कि वेद, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र, शल्यचिकित्सा (surgery), युद्धनीति, गणित, भाषा, और खगोलविद्या जैसे विषय भी पढ़ाए जाते थे। यहाँ चरक और कणाद जैसे महान शिक्षक माने जाते हैं, जिन्होंने चिकित्सा और पदार्थविज्ञान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। तक्षशिला का दृष्टिकोण बहुविषयक और व्यावहारिक था, जहाँ शिष्य को न केवल शास्त्रीय ज्ञान दिया जाता, बल्कि कड़ी साधना, प्रयोग और तर्क द्वारा विषय को आत्मसात कराना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होता था। इन सभी शिक्षण संस्थानों की शिक्षा पद्धति में श्रम, अनुशासन, नैतिकता, संवाद, तर्क और मनन की प्रधानता थी। अध्ययन केवल एकतरफा भाषण नहीं होता था, बल्कि यह विचारों के मुक्त आदान-प्रदान और आलोचनात्मक चिंतन पर आधारित था। इन संस्थानों ने भारत को ज्ञान की भूमिक, विश्वगुरु के रूप में स्थापित किया और बौद्ध धर्म के साथ-साथ भारत की सांस्कृतिक, बौद्धिक और नैतिक शक्ति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई। आज, जब वैश्विक शिक्षा प्रणाली केवल नौकरी-उन्मुख और तकनीकी हो चली है, तब इन प्राचीन संस्थानों से प्रेरणा लेकर नैतिकता, विवेक और मानवीय करुणा को शिक्षा का आधार बनाना अधिक प्रासंगिक हो गया है। 6. बौद्ध शिक्षा की संरचना और विधियाँ बौद्ध शिक्षा प्रणाली अत्यंत सुव्यवस्थित और नैतिक अनुशासन पर आधारित थी। इसकी संरचना न केवल वैचारिक विकास बल्कि आत्मिक परिष्कार की दिशा में भी अग्रसर होती थी। यह शिक्षा प्रणाली गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित थी, जिसमें गुरु (आचार्य) केवल विषय का ज्ञाता नहीं, बल्कि एक नैतिक मार्गदर्शक और व्यवहारिक जीवन के प्रेरक भी होता था। शिक्षण का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना था — जिसमें नैतिकता, तर्क, ध्यान और अनुभव का समावेश होता था। 1. शिक्षार्थियों का वर्गीकरण बौद्ध शिक्षा में विद्यार्थियों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया था: • उपासक (गृहस्थ शिष्य): वे गृहस्थ जीवन जीते हुए धर्म का अध्ययन और पालन करते थे। उनके लिए नैतिक नियमों (पंचशील) का पालन और बुद्ध की शिक्षाओं का श्रवण तथा अभ्यास ही मुख्य शिक्षा थी। • भिक्षु / भिक्षुणी (संन्यासी शिष्य): ये लोग संघ का हिस्सा होते थे और पूर्ण रूप से बौद्ध अनुशासन में दीक्षित रहते थे। इनके लिए विस्तृत अध्ययन, विनय-अनुशासन, ध्यान और प्रवचन की जिम्मेदारी होती थी। 2. शिक्षण की विधियाँ और प्रक्रियाएँ • श्रवण, मनन और निदिध्यासन बौद्ध शिक्षा में ज्ञान प्राप्ति की यह त्रिस्तरीय प्रक्रिया अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी: • श्रवण (Listening): आचार्य या वरिष्ठ भिक्षु के प्रवचनों और ग्रंथों का श्रवण कर प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त किया जाता था। • मनन (Reflection): श्रवण के पश्चात छात्र विषयों पर विचार करता, प्रश्न करता और उनके गूढ़ार्थ पर विचार करता था। • निदिध्यासन (Meditative assimilation): चिंतन के बाद विषय की गहराई में जाकर उसे आत्मसात करना, यह अंतिम चरण था। इससे ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि आत्मिक स्तर पर भी प्रभावी होता था। • विनय और अनुशासन: बौद्ध शिक्षा में विनय पिटक के नियमों का पालन अनिवार्य था। भिक्षु और भिक्षुणियों को अपने आचरण, वाणी, खान-पान और व्यवहार में पूर्ण संयम रखना होता था। विनय ही वह ढांचा था जो शिक्षा को नैतिक अनुशासन से जोड़ता था और शिक्षार्थियों में आत्म-नियंत्रण, विनम्रता और सेवा-भाव विकसित करता था। • ध्यान और प्रेक्षण: ध्यान (Meditation) बौद्ध शिक्षा का एक मूल आधार था। विपश्यना, अनापानसति जैसे ध्यान विधानों द्वारा छात्र अपनी अंतःचेतना को जागरूक करते और मनोवैज्ञानिक स्थिरता प्राप्त करते थे। इससे उन्हें आत्म-निरीक्षण, संवेदना, विवेक और आत्म-प्रबोधन में सहायता मिलती थी।• संवाद और तर्कशास्त्र: बौद्ध शिक्षा में संवाद (Discussion) और तर्कशास्त्र (Logic) को विशेष महत्व दिया गया। विहारों में भिक्षु नियमित रूप से शास्त्रार्थ करते, आपस में मतभेदों का तार्किक विश्लेषण करते और धम्म को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने का प्रयास करते। यह प्रणाली विद्यार्थियों में आलोचनात्मक सोच और स्वतंत्र विचारधारा का विकास करती थी। • नैतिक व्यवहार और सामाजिक सेवा: बौद्ध शिक्षा केवल आत्मकल्याण तक सीमित नहीं थी। इसका उद्देश्य समाज के प्रति दायित्व निभाने की भावना को भी प्रोत्साहित करना था। भिक्षुओं को करुणा, सेवा, अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलकर समाज में नैतिक चेतना फैलानी होती थी। यह "लोकहिताय लोकसुखाय" के सिद्धांत पर आधारित थी। बौद्ध शिक्षा प्रणाली केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक विधा थी। इसकी संरचना एक समग्र दृष्टिकोण पर आधारित थी, जो शरीर, मन और आत्मा तीनों के संतुलन की साधना करती थी। यह प्रणाली आज भी उस नैतिक और मानवीय शिक्षा की आदर्श मिसाल प्रस्तुत करती है, जिसकी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को नितांत आवश्यकता है। 7. सामाजिक और वैश्विक प्रभाव बौद्ध शिक्षा प्रणाली ने न केवल धार्मिक और बौद्धिक दृष्टि से समाज को समृद्ध किया, बल्कि उसने भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक विषमताओं और ऊँच-नीच की अवधारणाओं को चुनौती देते हुए शिक्षा को अधिक समावेशी और लोककल्याणकारी बनाया। जहाँ वैदिक शिक्षा प्रणाली जातिगत और वर्गगत विभाजन पर आधारित थी, वहीं बौद्ध धर्म ने शिक्षा को सभी वर्गों — विशेषकर स्त्रियों, शूद्रों, और तथाकथित अछूतों — के लिए सुलभ बनाया। बुद्ध के समय में ही भिक्षुणी संघ की स्थापना कर महिलाओं को धार्मिक और शैक्षिक जीवन में समान अवसर प्रदान करना, एक क्रांतिकारी कदम था। बौद्ध शिक्षा का प्रभाव भारतीय सामाजिक ढाँचे में नए मूल्यों के बीजारोपण के रूप में देखा गया — जैसे अहिंसा, सत्य, समानता, सेवा और सम्यक आचरण। इसके साथ ही यह शिक्षा प्रणाली मानव मात्र की मुक्ति के उद्देश्य से जुड़ी हुई थी, न कि किसी विशिष्ट जाति या वर्ण की मुक्ति से। इस समावेशी दृष्टिकोण ने समाज के हर वर्ग को अपने आत्मसम्मान और ज्ञान के अधिकार का बोध कराया। राजनैतिक रूप से भी बौद्ध शिक्षा को महान संरक्षण मिला। मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म को राजधर्म के रूप में अपनाया और बौद्ध शिक्षा के प्रचार-प्रसार को अपनी नीतियों का अभिन्न अंग बनाया। उन्होंने न केवल भारत में बौद्ध शिक्षा केंद्रों को समृद्ध किया, बल्कि अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संगमित्रा को श्रीलंका भेजकर बौद्ध शिक्षाओं का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसार करवाया। इसी प्रकार, पाल वंश के शासकों ने नालंदा, विक्रमशिला, सोमपुरी और ओदंतपुरी जैसे महाविहारों को विकसित कर भारत को एक शिक्षा का वैश्विक केंद्र बना दिया। बौद्ध भिक्षुओं और दूतों ने चीन, जापान, कोरिया, म्यांमार, थाईलैंड, नेपाल, तिब्बत और इंडोनेशिया जैसे देशों में न केवल बौद्ध धर्म, बल्कि बौद्ध शिक्षा पद्धति को भी पहुँचाया। इससे भारत और एशिया के बीच सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान का एक व्यापक नेटवर्क विकसित हुआ। इन देशों में आज भी बौद्ध शिक्षा की परंपरा जीवित है और वहाँ के विश्वविद्यालय, विहार और शोध संस्थान इसका प्रमाण हैं। 8. आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता 21वीं शताब्दी में जब वैश्विक शिक्षा प्रणाली तकनीकी दक्षता, सूचना का संचार और प्रतिस्पर्धात्मकता पर केन्द्रित होती जा रही है, तब बौद्ध शिक्षा की शांति-संचारित, नैतिकता-आधारित और करुणामयी दृष्टि पुनः प्रासंगिक हो उठी है। वर्तमान शैक्षिक परिवेश में मानसिक तनाव, नैतिक अधःपतन, सामाजिक अलगाव, और मूल्यहीनता की जो समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं, उनके समाधान हेतु बौद्ध शिक्षा पद्धति एक वैकल्पिक और संतुलित मार्ग प्रस्तुत करती है। आज भारत और विश्व के कई भागों में ध्यान केन्द्र, बौद्ध अध्ययन संस्थान, मानसिक स्वास्थ्य शिविर, और सांस्कृतिक संवाद कार्यक्रम बौद्ध शिक्षाओं पर आधारित हो रहे हैं। विश्वविद्यालयों में बौद्ध अध्ययन विभाग (Departments of Buddhist Studies), धम्म शिक्षा कार्यक्रम, और संयुक्त अनुसंधान परियोजनाएँ बौद्ध शिक्षा की विद्वत्ता को पुनर्जीवित कर रहे हैं। विपश्यना ध्यान, माइंडफुलनेस शिक्षा, और धम्म पथ प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रम आज वैश्विक कॉर्पोरेट, स्वास्थ्य, और शैक्षिक संस्थानों में मानसिक संतुलन और नैतिक निर्णय क्षमता विकसित करने के लिए प्रयुक्त किए जा रहे हैं। बौद्ध शिक्षा की प्रासंगिकता इस रूप में भी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि यह मानवता को एक वैश्विक परिवार के रूप में देखने की प्रेरणा देती है “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” का सिद्धांत आज की विभाजित और संघर्षरत दुनिया में सौहार्द और शांति के लिए मार्गदर्शक बन सकता है। इस प्रकार, बौद्ध शिक्षा पद्धति न केवल एक ऐतिहासिक धरोहर है, बल्कि वर्तमान और भविष्य की शैक्षिक आवश्यकताओं का संतुलित समाधान भी प्रस्तुत करती है — जिसमें ज्ञान के साथ-साथ करुणा, विवेक और नैतिक बल का संतुलन होता है। 9. निष्कर्ष (Conclusion) बौद्ध धर्म की शिक्षा पद्धति ने न केवल प्राचीन भारत में बौद्धिक और आध्यात्मिक चेतना का विस्तार किया, बल्कि उसने समाज के उन वर्गों को भी शिक्षित और सशक्त बनाया जिन्हें पारंपरिक वैदिक व्यवस्था में शिक्षा से वंचित रखा गया था। यह पद्धति तर्कशीलता, विवेक, आत्मअनुशासन और करुणा जैसे मानवीय गुणों पर आधारित थी, जो न केवल व्यक्ति के आत्मकल्याण की दिशा में प्रेरित करती थी, बल्कि समाज में नैतिकता, समानता और सहअस्तित्व की भावना को भी विकसित करती थी। बौद्ध शिक्षा ने भिक्षु संघ, महाविहारों और ध्यान पर आधारित शिक्षण विधियों के माध्यम से एक ऐसी शैक्षिक संस्कृति का निर्माण किया जो सीमाओं से परे जाकर दक्षिण और पूर्व एशिया में भी प्रभावी रही। नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला जैसे शिक्षा केंद्र आज भी विश्व इतिहास में भारत के शैक्षिक योगदान के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वर्तमान समय में जब वैश्विक शिक्षा प्रणाली बाजारवाद, उपयोगितावाद और मानसिक तनाव की चुनौतियों से जूझ रही है, तब बौद्ध शिक्षा पद्धति का यह समग्र और संतुलित दृष्टिकोण एक वैकल्पिक मार्ग सुझाता है। यह शिक्षा केवल नौकरी प्राप्त करने की योग्यता नहीं देती, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाती है — जिसमें आत्म-साक्षात्कार, सामाजिक उत्तरदायित्व और शांति की भावना समाहित होती है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बौद्ध शिक्षा पद्धति का ऐतिहासिक और दार्शनिक अध्ययन न केवल अतीत की बौद्धिक विरासत को समझने के लिए आवश्यक है, बल्कि यह समकालीन शिक्षा प्रणाली के लिए भी एक नैतिक और मानवीय मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। इस परंपरा की पुनर्व्याख्या और पुनर्प्रस्तुति आधुनिक समाज को न केवल ज्ञान बल्कि संतुलन, सहिष्णुता और शांति की ओर अग्रसर कर सकती है। 10. संदर्भ सूची (References) 1. 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Keywords | . |
Field | Arts |
Published In | Volume 6, Issue 7, July 2025 |
Published On | 2025-07-04 |
Cite This | बौद्ध धर्म में शिक्षा पद्धति: एक दार्शनिक और ऐतिहासिक अध्ययन - Mohan Singh - IJLRP Volume 6, Issue 7, July 2025. |
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