
International Journal of Leading Research Publication
E-ISSN: 2582-8010
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Impact Factor: 9.56
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Volume 6 Issue 4
April 2025
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प्रेमचन्द के उपन्यासों की सामाजिक उपादेयता
Author(s) | कौशल कुमार शर्मा |
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Country | India |
Abstract | प्रेमचन्द हिंदी साहित्य के उन युगप्रवर्तक साहित्यकारों में अग्रणी हैं, जिनकी रचनाएँ समाज के यथार्थ चित्रण और सामाजिक चेतना के विकास के लिए जानी जाती हैं। उनके उपन्यासों में भारतीय समाज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उसमें व्याप्त सामाजिक विषमताओं का अत्यंत सजीव एवं मार्मिक चित्रण मिलता है। यह शोध पत्र प्रेमचन्द के उपन्यासों के ऐतिहासिक संदर्भों और उनकी सामाजिक उपादेयता का विश्लेषण करता है, जिससे यह स्पष्ट किया जा सके कि किस प्रकार प्रेमचन्द ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज की जटिलताओं, विशेषकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों को प्रतिबिंबित किया। प्रेमचन्द के उपन्यासों में "गोदान," "गबन," "निर्मला," "कर्मभूमि" और "प्रेमाश्रम" जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन इस शोध का आधार रहेगा, जिनमें ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, जमींदारी प्रथा, कृषक जीवन, स्त्री उत्पीड़न, जातिवाद और आर्थिक असमानता जैसी समस्याओं पर गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया गया है। प्रेमचन्द के साहित्य में राष्ट्रवादी चेतना और सामाजिक सुधार की प्रेरणा भी प्रमुख रूप से परिलक्षित होती है, जिससे उनके उपन्यास केवल मनोरंजन के साधन न होकर सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी उपकरण बन जाते हैं। यह शोध प्रेमचन्द के उपन्यासों के ऐतिहासिक संदर्भों का गहन अध्ययन करेगा और यह विश्लेषण करेगा कि उनकी कृतियाँ किस प्रकार तत्कालीन समाज की समस्याओं को उजागर करती हैं और आज के परिप्रेक्ष्य में भी उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है। प्रेमचन्द का साहित्य केवल अतीत का दर्पण नहीं है, बल्कि वह समकालीन समाज के लिए भी मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। उनका लेखन जनसामान्य के संघर्ष, सामाजिक न्याय, नैतिक मूल्यों और भारतीय समाज की सांस्कृतिक संरचना को समझने में सहायक सिद्ध होता है। इस शोध के माध्यम से यह स्पष्ट किया जाएगा कि प्रेमचन्द के उपन्यासों की सामाजिक उपादेयता केवल उनके युग तक सीमित नहीं रही, बल्कि वे आज भी सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। प्रस्तावना महात्मा गांधी ने भारतीय समाज में सुधार के लिए जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, उसे 'सत्यं शिवं सुन्दरं' के रूप में हिन्दी गद्य साहित्य में साकार करने वाले साहित्यकार अगर कोई थे, तो वे प्रेमचन्द ही थे। गांधीजी के विचारों को सशक्त रूप से व्यक्त करने वाले साहित्यकार के रूप में प्रेमचन्द का नाम सबसे पहले आता है, क्योंकि उनका लेखन गांधीवादी विचारधारा से पूरी तरह मेल खाता था। गांधीजी ने जैसे समाज सुधार और राजनीति को एक साथ जोड़ते हुए दलितों के उद्धार, मादक द्रव्यों के निषेध, अस्पृश्यता निवारण, स्त्रियों की उन्नति, और प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य किया, उसी तरह प्रेमचन्द के लेखन में भी इन मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया। गांधीजी ने भारतीय नारी को उसके पारंपरिक दायरे से बाहर निकालने का जो आह्वान किया, उसका प्रभाव प्रेमचन्द के नारी पात्रों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में नारी की स्थिति और उनके संघर्षों की जो चित्रण मिलता है, वह उस समय की सामाजिक जागृति का प्रतीक है। प्रेमचन्द का साहित्य अपने समय की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों का सशक्त प्रतिनिधित्व करता है और वह युग का दर्पण बनकर सामने आता है। यही कारण है कि यह कहा जाता है कि अगर प्रेमचन्द का साहित्य न होता, तो युग के भारत का इतिहास कहीं खो जाता। प्रेमचन्द को केन्द्र में रखकर हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा को तीन प्रमुख युगों में विभाजित किया जा सकता है: 1. प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यास 2. प्रेमचन्द युगीन उपन्यास 3. प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास इन तीनों युगों में प्रेमचन्द का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है और उनके साहित्य को समग्र रूप में समझने से हमें भारतीय समाज के बदलते स्वरूप का गहरा अध्ययन करने का अवसर मिलता है। प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यास प्रेमचन्द से पहले हिन्दी उपन्यास साहित्य जासूसी, तिलस्मी, ऐय्यारी और काल्पनिक रोमांस से भरा हुआ था। इस तरह के उपन्यास अक्सर कौतूहल और सनसनी उत्पन्न करने के उद्देश्य से लिखे जाते थे, जो कि मुख्य रूप से मनोरंजन के साधन होते थे। इन उपन्यासों का वास्तविक जीवन और समाज से कोई खास संबंध नहीं होता था। वे आदर्शवादी या कल्पनाशील थे, जो आमतौर पर मानवता के वास्तविक संघर्षों और समस्याओं से बहुत दूर थे। यह उपन्यास साहित्य न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से कमजोर था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को उठाने में भी पूरी तरह विफल था। हिन्दी उपन्यास की यह शैशवास्था प्रेमचन्द के आगमन के साथ समाप्त हुई। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज के गहरे सवालों और यथार्थ को प्रस्तुत किया। उनके लेखन में व्यक्ति और समाज की वास्तविक समस्याओं को केंद्र में रखा गया। उन्होंने साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद की स्थापना की, जिसे पहले के उपन्यासों में न तो देखा गया था और न ही समझा गया था। प्रेमचन्द के उपन्यास न केवल भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक धारा की परछाईं थे, बल्कि वे समाज के प्रत्येक वर्ग के जीवन को संवेदनशीलता और यथार्थ के साथ चित्रित करते थे। यदि उपन्यास को मानव जीवन का महाकाव्य और मानव चरित्र का चित्रण माना जाये, तो प्रेमचन्द से पहले का हिन्दी उपन्यास इस दायरे से बाहर था। प्रेमचन्द ने अपने लेखन से उपन्यास के रूप को केवल मनोरंजन का माध्यम न मानकर उसे सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त औजार बना दिया। उनका साहित्य न केवल मानवता की सच्चाई को उकेरता है, बल्कि यह समाज में व्याप्त कुरीतियों, असमानताओं और अन्याय को चुनौती देता है। प्रेमचन्द ने न केवल उपन्यास के विषय को बदल दिया, बल्कि उन्होंने इसके शिल्प में भी एक नई दिशा प्रदान की। उनके उपन्यासों में जहाँ एक ओर संवेदनशीलता और मानवीय मूल्य थे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन की गहरी और कटीली सच्चाइयों को भी सामने रखा। प्रेमचन्द के उपन्यासों में यथार्थवाद की जो लहर आई, उसने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा दी। उनका उपन्यास साहित्य में समग्र दृष्टिकोण और विश्लेषण की एक नई शैली का प्रवेश हुआ, जो समाज के हर पहलू को समेटता था। प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यासकारों ने शायद ही कभी इस तरह की सामाजिक और मानसिक गहराई से काम लिया हो। प्रेमचन्द के बाद के उपन्यासकारों ने किसी न किसी रूप में उनके आदर्शों का अनुसरण किया। यद्यपि हिन्दी उपन्यास साहित्य आज काफी विकसित हो चुका है और इसमें नयी शैलियों और विषयों का समावेश हुआ है, फिर भी प्रेमचन्द जैसा युग दृष्टा उपन्यासकार हिन्दी साहित्य में नहीं हुआ। प्रेमचन्द ने न केवल हिन्दी साहित्य में एक युग परिवर्तन किया, बल्कि उन्होंने उपन्यास को उस स्थान पर स्थापित किया, जहाँ से उसे कोई पीछे मुड़कर नहीं देख सकता। उनकी लेखनी आज भी उपन्यास साहित्य के सम्राट के रूप में मानी जाती है। उनके योगदान को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर हिन्दी उपन्यास जगत में कोई सम्राट है, तो वह प्रेमचन्द ही हैं। प्रेमचन्दयुगीन उपन्यास एवं प्रेमचन्द का उपन्यास क्षेत्र में स्थान, महत्व और योगदान प्रेमचन्द का साहित्य न केवल हिन्दी उपन्यास की धारा को दिशा देने वाला था, बल्कि उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन के यथार्थ को अपनी लेखनी के माध्यम से सशक्त रूप से उजागर किया। उनके उपन्यासों में आदर्श और यथार्थ का संयोजन हुआ, जिससे जीवन के संघर्ष और चेतना का सुंदर चित्रण हुआ। प्रेमचन्द के उपन्यासों में न केवल सामाजिक वर्गों का चित्रण था, बल्कि उन वर्गों के भीतर छिपे असंख्य संघर्षों, अभावों और आकांक्षाओं को भी उकेरा गया। उनका उपन्यास गोदान भारतीय समाज का समग्र चित्र प्रस्तुत करने वाला एक महाकाव्यात्मक रचना है, जो समाज के विभिन्न पहलुओं की गहरी समझ और मर्म को उद्घाटित करती है। गोदान में प्रेमचन्द ने किसानों की स्थितियों, उनके संघर्षों, और समाज में उनकी उपेक्षा को विस्तार से दिखाया है। यह उपन्यास समाज की उस परत को खोलता है, जिसे हम अक्सर नज़रअंदाज कर देते हैं। प्रेमचन्द के शब्दों में "गोदान" भारत की मिट्टी और उसके वास्तविक स्वरूप को बहुत करीब से महसूस करने की कोशिश है। प्रेमचन्द का महत्व सिर्फ उनके लेखन तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके द्वारा दिखाए गए समाज के विभिन्न वर्गों के संघर्ष और उनके उत्थान के प्रयासों में भी था। उनके उपन्यासों में निम्न और मध्यम वर्ग की जीवन स्थितियों की गहरी समझ और उनकी अभिव्यक्ति थी। इस दृष्टि से प्रेमचन्द को हिन्दी साहित्य में एक युगदृष्टा और समाज सुधारक के रूप में देखा जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमचन्द के महत्व को इस प्रकार व्यक्त किया है: "प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित, अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज थे। पर्दे में कैद पग-पग पर लांछित और असहाय नारी जाति के जबर्दस्त वकील थे। गरीबों और बेबसों के प्रचारक थे।" प्रेमचन्द की लेखनी ने उन्हीं शोषित वर्गों को एक आवाज दी, जिन्हें समाज और साहित्य दोनों ने उपेक्षित किया था। उनके उपन्यासों में सेवा सदन, गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि, आदि के माध्यम से समाज की वास्तविक स्थितियों को प्रस्तुत किया गया। सेवा सदन में उन्होंने नारी की स्थिति और उसकी सामाजिक बंदिशों को बेबाक तरीके से उजागर किया। गोदान में किसान के संघर्ष को केंद्र में रखते हुए, प्रेमचन्द ने समाज के उपेक्षित वर्गों के बारे में समाज को जागरूक किया। प्रेमचन्द का योगदान हिन्दी उपन्यास साहित्य में अनमोल और अद्वितीय था। उनके उपन्यासों ने न केवल समाज के सबसे निचले तबके की आवाज उठाई, बल्कि उन्होंने उस समय के समाज की गहरी नब्ज को छुआ। प्रेमचन्द का साहित्य न केवल हिन्दी साहित्य का इतिहास बन गया, बल्कि वह भारतीय समाज के उस दौर का भी साक्षी है, जिसमें परिवर्तन की आवश्यकता थी। प्रेमचन्द के उपन्यासों में न केवल समाज के भीतर की वास्तविकता उभर कर आई, बल्कि उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज सुधार की दिशा भी दी। उनके उपन्यासों में केवल कहानी नहीं थी, बल्कि एक जीवन दर्शन था, जो आज भी पाठकों को सोचने और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझने के लिए प्रेरित करता है। उनका योगदान हिन्दी उपन्यास साहित्य में हमेशा के लिए अमिट रहेगा। प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास प्रेमचन्द ने जिस क्षेत्र में कार्य किया था, उसमें उनके उत्तराधिकारी क्रम का आरंभ हुआ। प्रकाशचन्द्र गुप्ता ने प्रेमचन्द के उत्तराधिकारी उपन्यासकारों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है- 'प्रेमचन्द की किसान परम्परा को तजकर हिन्दी - उपन्यास अनेक नई दिशाओं की ओर बढ़ा, तत्व और रूप दोनों की दृष्टि से एकधारा निम्नवर्ग के जीवन, उसकी निराशाओं और असफलताओं को - अपनाती है। इसके प्रमुख परिचायक जैनेन्द्र, भगवती प्रसाद बाजपेयी, अश्क आदि हैं। दूसरी धारा व्यक्त्तिवादी, अहंवादी आदि नाशवादी दृष्टिकोण को अपनाती है। इसके प्रतिनिधि भगवतीचरण वर्मा - 'अज्ञेय' आदि है। एक धारा मनोविश्लेषणशास्त्र के - प्रभाव से कुण्ठित अतृप्त वासनाओं को अभिव्यक्त करती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि पण्डित इलाचन्द जोशी है। एक अन्य धारा भारतीय श्रमजीवी वर्ग की छिपी शक्तियों से संबंध जोड़ती है और भविष्य की धरती को संजोती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि यशपाल, रांगेय राघव, पहाड़ी, भगवतशरण उपाध्याय, नागार्जुन आदि हैं। प्रेमचन्द उपन्यास जगत को देन प्रेमचन्द का उपन्यास सृजन सन् 1902 में प्रांरभ हो जाता है। इस समय आपकी आयु केवल 22 वर्ष की थी। आपके टैगोर की कहानियों के अनुवाद उर्दू पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। आपकी सबसे पहली कहानी 'संसार का सबसे अनमोल रत्न' सन् 1900 में जमाना पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी। इसी वर्ष आपने 'कृष्ण' नामक उपन्यास की भी रचना की। सन् 1902 में 'वरदान' तथा सन् 1902 में ही 'प्रेमा' और 1906 में 'प्रतिज्ञा' उपन्यास की रचना की सन् 1908 में जमाना प्रेम से 'सोजे वतन' के नाम से पाँच कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ जो सरकार द्वारा जप्त कर लिया गया। आप नवाबराय के नाम से कथा साहित्य की रचना करते रहे। सोजे वतन की जप्ती के पश्चात् प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे और उर्दू से हिन्दी की ओर आ गये। 'सेवासदन' प्रेमचन्द का प्रथम उपन्यास है। यह सन् 1916 में प्रकाशित हुआ इससे पूर्व आप 'वरदान' 'प्रतिज्ञा' या 'प्रेमा' और 'रूठी रानी' उपन्यास लिख चुके थे। 'रूठी रानी' एक छोटा सा ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें राजपूती वीरता के साथ परस्पर की उस फूट का चित्रण किया गया, जिसके कारण देश पराधीन हुआ। सन् 1901 में आपने 'प्रतापचन्द' नामक उपन्यास लिखा जिसे सन् 1902 में 'वरदान' नाम से प्रकाशित किया। सन् 1903 में प्रकाशित 'प्रेमा' उपन्यास पहले उर्दू में हमखुर्मा और हम कबाव के नाम से प्रकाशित हो चुका था। बाद में प्रेमचन्द्र ने 'प्रेमा' में बहुत अधिक परिवर्तन कर दिया और वह हिन्दी में 'प्रतिज्ञा' और उर्दू में 'बेवफा' नाम से प्रकाशित हुआ। प्रेमचन्द ने इन उपन्यासों का कला की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। 'सेवा सदन' ही आपका महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसके पश्चात् प्रेमचन्द के निम्नलिखित उपन्यास प्रकाशित हुए प्रेमाश्रम (सन् 1922), निर्मला (सन् 1923), रंगभूमि (सन् 1924-25), कायाकल्प (सन् 1928), गबन (सन् 1931) कर्मभूमि (सन् 1932), गोदान (सन् 1936) 1 प्रेमचन्दजी ने अपने जीवन के प्रत्येक पहलू को सच्चाई के साथ वर्णन करके उपन्यास साहित्य को जीवन की पूर्णकृति बनाने का अनुपम प्रयास किया है। तत्कालीन सच्ची परिस्थितियों क चित्रण आपके उपन्यासों में मिलता है। प्रेमचन्द्र-कर्मभूमि कर्मभूमि प्रेमचन्द का एक ऐसा उपन्यास है, जो भारत के स्वाधीनता आंदोलन की गहरी छायाएँ समेटे हुए है। यह उपन्यास केवल युगीन घटनाओं का विवरण नहीं है, बल्कि इसमें राजनीति, समाज, धर्म और शिक्षा के जटिल और बहुआयामी मुद्दों को भी विश्लेषित किया गया है। इस उपन्यास का आकर्षण न केवल इसकी कथा में है, बल्कि यह यथार्थ के धरातल पर उभरते घटनाक्रमों के संगठित चित्रण के कारण भी महत्वपूर्ण बन जाता है। प्रेमचन्द ने इसे इस प्रकार सूत्रबद्ध किया है कि घटनाएँ असंगठित और अव्यवस्थित नहीं लगतीं, बल्कि एक स्पष्ट और सुसंगत रूप में पाठक के सामने आती हैं। कर्मभूमि की कथावस्तु दो मुख्य अंचलों की कहानियों का सम्मिलन है: एक काशी नगरी की और दूसरी हरिद्वार के समीपस्थ गाँव की। इन दोनों कथाओं के सूत्र अमर नामक पात्र के माध्यम से आपस में जुड़ते हैं। काशी नगरी की कथा अछूतों के उद्धार, श्रमिकों की परिस्थितियों और उनके अधिकारों की बात करती है। विशेष रूप से अछूतों के मंदिर प्रवेश के लिए प्रो. शान्तिकुमार और सुखदा द्वारा किए गए सत्याग्रह का वर्णन इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इस सत्याग्रह में गोलीबारी होती है, लेकिन अंततः उन्हें मंदिर प्रवेश का अधिकार मिल जाता है। इसी तरह, मजदूरों की आवास व्यवस्था के लिए संघर्ष और सुखदा की नेतृत्व में हड़ताल की घटना भी उपन्यास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, जिसमें सरकारी दमन के बावजूद आंदोलन जारी रहता है। सुखदा, शान्तिकुमार, अमरकान्त और सकीना जैसे पात्र जेल जाते हैं, जो सामाजिक असमानताओं के खिलाफ अपने संघर्ष को व्यक्त करते हैं। ग्राम की कथा अछूत किसानों की दुरावस्था पर आधारित है। अमर की प्रेरणा से किसान लगान बंदी आंदोलन शुरू करते हैं, लेकिन सरकार इसे दबाने के लिए निर्ममता से प्रयास करती है। अमर को इस आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार किया जाता है और जेल भेज दिया जाता है। इस प्रकार, कर्मभूमि में गाँव और नगर की कथाएँ आपस में जुड़ी हुई हैं, जैसे कि प्रेमचन्द के गोदान उपन्यास में भी नगर और गाँव की कथाएँ एक साथ चलती हैं। प्रेमचन्द ने अपनी विशेष लेखनी से इस उपन्यास में नगर और गाँव की कथाओं को इतने सुसंगठित और स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है कि पाठक दोनों दुनिया के संघर्षों को महसूस कर सकते हैं। इस प्रकार, कर्मभूमि न केवल एक ऐतिहासिक उपन्यास है, बल्कि यह भारतीय समाज के भीतर व्याप्त असमानताओं, संघर्षों और राजनीतिक चेतना का भी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन जाता है। प्रेमचन्द की यह प्रतिभा इस उपन्यास में बखूबी उजागर होती है, जहाँ उन्होंने व्यापक सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं को सटीक और प्रभावशाली रूप से चित्रित किया है। प्रेमचन्द-रंगभूमि 'रंगभूमि' की आधिकारिक कथा काशी के बाहरी भाग में बसे पांडेपुर गाँव की है। गरीबों की बस्ती है ग्वाले, मजदूर, गाड़ीवान और खोमचे वालों की बस्ती। इन्हीं में एक गरीब और अन्धा चमार रहता है-सूरदास। भिखारी है और पुरखों की 10 बीघा धरती भी उसके पास है, जिसमें गाँव के ढ़ोर चरते-विचरते है। सामने ही एक खल का गोदाम है, जिसका आढ़ती है जानसेवक-सिगरा मुहल्ले का निवासी एक ईसाई इस जमीन पर उसकी बहुत दिनों से निगाह है सिगरेट का कारखाना खोलने के लिए सूरदास किसी भी तरह अपने पुरखों की निशानी उस धरती को बेचने के लिए जब राजी नहीं होता है तो जानसेवक अधिकारियों से मेलजोल का सहारा लेकर उसे हथियाना चाहता है अपनी बेटी सोफिया के माध्यम से राजा भरतसिंह और उनके परिवार के जानसेवक का परिचय सम्बम्ध स्थापित होता है। राजासाहब के परिवार में चार प्राणी है- पत्नी रानी जाह्मवी, पुत्री इन्दु और पुत्र विनय। आधिकारिक कथा के साथ जुड़ने वाला प्रथम प्रबलतम कथासूत्र सोफिया और विनय का परस्पर हृदय दान है। विनय को जनता के लिए बलिदान करना पड़ता है और सोफिया गंगा में समा जाती है। आधिकारिक कथा और सहायक कथाओं के साथ प्रासंगिक कथाएँ भी सुभागी और भैरों की उपकथा पांडेपुर में उपजती है तथा ग्रामीणजनों की स्वार्थपरता, पारस्परिक कलह, ईर्ष्या द्वेष, सहयोग एवं सहानुभूति आदि के रूप में गाव के सामूहिक जीवन का चित्र उभारकर विलीन हो जाता है ग्रामीण जीवन, राव-राजे, किसान-नागरिक, पूँजीपति और उनके अधीनस्थ मजदूर आदि की मानसिक विचार धारणाएँ प्रकट करना रंगभूमि का उद्देश्य है। भारतीय समाज जो सदियों से रूढ़िग्रस्त, अन्धविश्वासी और ग्रस्त होने के कारण मूक था, प्रेमचन्द ने उसके मौन प्रतीत नहीं होती। 'गोदान' की भाँति प्रेमचन्द के इस उपन्यास में भी गॉव और नगर की कथा वर्णित है। इतने विशाल कथाचित्र फलक को लेकर सुसंगठित रूप में प्रस्तुत करने की प्रेमचन्द की प्रतिभा अनुपम है। प्रेमचन्द-रंगभूमि 'रंगभूमि' की आधिकारिक कथा काशी के बाहरी भाग में बसे पांडेपुर गाँव की है। गरीबों की बस्ती है ग्वाले, मजदूर, गाडीवान और खोमचे वालों की बस्ती। इन्हीं में एक गरीब और अन्धा चमार रहता है-सूरदास। भिखारी है और पुरखों की 10 बीघा धरती भी उसके पास है, जिसमें गाँव के ढ़ोर चरते-विचरते है। सामने ही एक खल का गोदाम है, जिसका आढ़ती है जानसेवक सिगरा मुहल्ले का निवासी एक ईसाई इस जमीन पर उसकी बहुत दिनों से निगाह है सिगरेट का कारखाना खोलने के लिए सूरदास किसी भी तरह अपने पुरखों की निशानी उस धरती को बेचने के लिए जब राजी नहीं होता है तो जानसेवक अधिकारियों से मेलजोल का सहारा लेकर उसे हथियाना चाहता है अपनी बेटी सोफिया के माध्यम से राजा भरतसिंह और उनके परिवार के जानसेवक का परिचय सम्बम्ध स्थापित होता है। राजासाहब के परिवार में चार प्राणी है- पत्नी रानी जाह्नवी, पुत्री इन्दु और पुत्र विनय। आधिकारिक कथा के साथ जुड़ने वाला प्रथम प्रबलतम कथासूत्र सोफिया और विनय का परस्पर हृदय दान है। विनय को जनता के लिए बलिदान करना पड़ता है और सोफिया गंगा में समा जाती है। आधिकारिक कथा और सहायक कथाओं के साथ प्रासंगिक कथाएँ भी सुभागी और भैरों की उपकथा पांडेपुर में उपजती है तथा ग्रामीणजनों की स्वार्थपरता, पारस्परिक कलह, ईर्ष्या-द्वेष, सहयोग एवं सहानुभूति आदि के रूप में गाव के सामूहिक जीवन का चित्र उभारकर विलीन हो जाता है ग्रामीण जीवन, राव-राजे, किसान-नागरिक, पूँजीपति और उनके अधीनस्थ मजदूर आदि की मानसिक विचार धारणाएँ प्रकट करना रंगभूमि का उद्देश्य है। भारतीय समाज जो सदियों से रूढ़िग्रस्त, अन्धविश्वासी और ग्रस्त होने के कारण मूक था, प्रेमचन्द ने उसके मौन को तोड़कर रंगभूमि में उसे वाचाल बना दिया है। 'यदि हिन्दी उपन्यास पर सरसरी नजर भी डाली जाये तो लगता है कि आधुनिकता के जीवन की शुरूआत गोदान (1934-36) में मानी जा सकती है। इसके आसपास कथाकारों की संवेदना में अंतर आने लगा था। प्रेमचन्द गोदान 'गोदान' में अनेक परिवारों की कथा है, जो मिलकर एक विराट एवं सामाजिक परिवेश का निर्माण करती हैं। होरी का परिवार इसमें सर्वप्रमुख है। वह बिलारी गाँव का किसान है जहाँ के जमींदार रायसाहब अमरपालसिंह है। होरी राय साहब के यहाँ अक्सर जाता है और उनके मुँह लगा है। कथानक का प्रांरभ होरी की गाय पालने की इच्छा से होता है। पडोस गाँव के ग्वाले भोला से उसकी भेंट हो जाती है। भोला की अनेक गायें थी उनमें से एक पर होरी का मन ललचा उठता है। भोला के सामने भूसे की कठिनाई थी। होरी के पास भूसा प्रचुर मात्रा में था। होरी का पुत्र गोबर राय साहब को ढोंगी और सियार बताता है। बीच में होरी भोला से गाय प्राप्त करने उसे भूसा देने और भोला का विवाह करा देने के आश्वासन का उल्लेख करता है। गाय आ जाने से घर में प्रसन्नता की लहर छाई हुई है। गाँव के साहूकार झिंगुरसिंह की दृष्टि होरी की गाय पर है। होरी के दो भाई शोभा और हीरा है। हीरा गाय को जहर देता है। गाय मर जाती है होरी की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जाती है। होरी गोबर के बच्चे के दूध के लिए गाय लेने का प्रयत्न करता है। उसके लिए वह अपनी पत्नी धनिया सहित एक ठेकेदार के यहाँ कंकड खोदने का काम करता है। कंकड़ खोदते हुए होरी को लू लग जाती है। उसे घर लाया जाता है। वह धनिया से कहता है कि 'गोदान करा' दो अब सही समय है। 'धनिया' ने आज सुतली बेचकर बीस रूपये प्राप्त किये थे। वह उनको होरी के हाथों पर रखकर सामने खड़े दातादीन से कहती है- महाराज घर में गाय है न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है। होरी की मृत्यु और धनिया के पछाड़ खाकर गिरने के साथ कथानक समाप्त हो जाता है। प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में नारी की आभूषण प्रियता से उत्पन्न दुष्परिणामों झूठी मानमर्यादा के प्रदर्शन के परिणामों अनमेल विवाह के परिणामों आदि का चित्रण करके इससे दूर रहने का सुझाव और बोध दिया है। तत्कालीन समस्याओं का चित्रण करके इससे सावधान या दूर रहने का उन्यासकार ने सुझाव अप्रत्यक्ष रूप से दिया है यही इस रचना का उद्देशय है। प्रेमचन्द सेवासदन 'सेवासदन' एक सामाजिक उपन्यास है। इसमें समाज में प्रचलित विभिन्न जातियों अनेकानेक विचार पद्धतियों मान्यताओं एवं मर्यादाओं का पूर्णरूप से ध्यान रखा गया है। साथ ही पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का बड़ा ही मनोहारी वर्णन है। कथावस्तु आर्थिक विपन्नता, रिश्वतखोरी, दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, नारी जीवन की समस्या एवं सम्मानित लोगों पर करारे व्यंग्यों से परिपूर्ण है। घटनाएँ काल्पनिक न होकर यथार्थ धरातल पर अवस्थित है। यथार्थपरकता एवं अनुभूति की सच्चाई के कारण इस उपन्यास में जीवन का वास्तविक चित्र मिलता है। अन्त में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अर्थात निःस्वार्थ भावना का मार्ग प्रशस्त कर सामाजिकों को एक सूत्र में बांधनें की कोशिश की गई है। इसमें मानव की उदस्त भावनाओं एवं सामाजिक कल्यण की भावना पर विशेष बल दिया गया है। निष्कर्ष हिन्दी उपन्यास साहित्य में प्रेमचन्द का स्थान अत्यन्त ऊँचा और अभूतपूर्व है। उनके उपन्यास केवल कथा नहीं, बल्कि समाज, राजनीति और मानवता के गहरे सत्य को उजागर करने वाले आयाम हैं। प्रेमचन्द की लेखनी ने हिन्दी उपन्यास को एक नई दिशा दी, जिसमें उन्होंने न केवल सामाजिक यथार्थ को सजीव चित्रित किया, बल्कि उस यथार्थ को एक गहरे मानवीय दृष्टिकोण से समझने की भी कोशिश की। उनके उपन्यासों में न केवल युग की सच्चाई का दर्शन होता है, बल्कि उन सच्चाइयों के माध्यम से उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों की आवाज को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया। प्रेमचन्द का कथा शिल्प अत्यन्त सशक्त और कलात्मक है। उन्होंने अपने उपन्यासों में लोकभाषा का समावेश किया, जिससे उनकी भाषा में आम जनजीवन की खुशबू आती है। साहित्यिक सौष्ठव के साथ-साथ उनकी भाषा में सहजता और प्रवाह है, जो पाठक को अपनी ओर खींचता है। उनके द्वारा रचे गए चरित्र जीवन की वास्तविकता से परिचित कराते हैं और वे पाठकों को केवल साहित्यिक आनंद नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक और नैतिक बोध की भी अनुभूति कराते हैं। प्रेमचन्द ने हिन्दी उपन्यास को सिर्फ एक साहित्यिक विधा के रूप में नहीं, बल्कि एक सशक्त सामाजिक आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया। उनके उपन्यासों में विद्यमान संघर्ष, आदर्श और यथार्थ ने हिन्दी उपन्यास साहित्य में एक नई प्राणधारा का संचार किया। उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे न केवल अपने समय के महत्वपूर्ण लेखक थे, बल्कि भारतीय साहित्य के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुए हैं। इसलिए, प्रेमचन्द को उपन्यास साहित्य में ‘मील का पत्थर’ कहा गया है, क्योंकि उन्होंने अपनी लेखनी से हिन्दी उपन्यास को एक स्थायी और अमूल्य धरोहर में बदल दिया। उनके द्वारा रचित कृतियाँ आज भी भारतीय समाज की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं को बखूबी दर्शाती हैं। संदर्भ ग्रंथ सूची 1. 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Keywords | . |
Field | Arts |
Published In | Volume 6, Issue 2, February 2025 |
Published On | 2025-02-20 |
Cite This | प्रेमचन्द के उपन्यासों की सामाजिक उपादेयता - कौशल कुमार शर्मा - IJLRP Volume 6, Issue 2, February 2025. |
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10.70528/IJLRP
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