International Journal of Leading Research Publication

E-ISSN: 2582-8010     Impact Factor: 9.56

A Widely Indexed Open Access Peer Reviewed Multidisciplinary Bi-monthly Scholarly International Journal

Call for Paper Volume 6 Issue 4 April 2025 Submit your research before last 3 days of to publish your research paper in the issue of April.

शंकर अद्वैत वेदान्त दर्शन में विवर्तवाद एवं परिणामवाद

Author(s) डॉ सुरेंद्र कुमार तोसावड़ा
Country India
Abstract भारतीय दर्शनों में कार्य कारणवाद का बहुत अधिक महत्व है अद्वैत वेदान्त के अनुसार विवर्तवाद के अनुसार सृष्टि की रचना हुई है | सांख्य एवं योग के अनुसार परिणामवाद अर्थात् प्रकृति के परिणाम एवं विकार से सृष्टि की रचना मानी गई है | अद्वैत वेदान्त में इस परिणामवाद का खण्डन किया जाता है | शंकर ने शोध स्वरुप यह माना है कि परिमाणवाद को परमाणुओं से सिद्ध नहीं किया जा सकता है |
भूमिका -
(1) शंकर अद्वैत वेदान्त दर्शन के अनुसार भारतीय दर्शनों के कारण वाद का अधिक महत्व है | भारतीय दर्शन शास्त्रों में सृष्टि रचना अद्वैत वेदान्त के अनुसार हुई है | संख्या गणित एवं योग के अनुसार प्रकृति से परिणाम तथा विकार में सृष्टि की रचना की मान्यता है | परमाणुओं से परिणामवाद को सिद्ध नहीं किया जा सकता | प्रधान बिना चेतना के सत्ता का सहारा लिए प्रवृत नहीं हो सकता | सांख्यों के अनुसार साध्य है चेतन बिना सत्ता का सहारा लिए प्रकृति का सुख – दुःख मोह व आत्मा ही कारण मात्र है | इसी का दूसरा प्रारूप चेतना सत्ता का सहारा लेकर सुख - दुःख और मोहात्मक पदार्थों का कारण बना | इसका द्वितीय शब्द दुःख व मोह से युक्त विपर्यय से व्याप्त होता है यदि साधन साध्याभाव से व्याप्त हो तो विरुद्ध हेतु नाम का हेत्वा भास होता है | सुख – दुःख उसी प्रकार विरुद्ध हेतु है जिस तरह वस्तु का नित्य सिद्ध करने के लिए उसका कारण क्या हो कि वह उत्पन्न होती है | उत्पन्न होने वाली कोई वस्तु अनित्य साध्या भाव ही सिद्ध हो जायेगी नित्य नहीं | सांख्यो द्वारा यह सिद्ध है कि प्रकृति चेतन की सहायता लिए बिना सुखादी से युक्त पदार्थो को उत्पन्न करती है | दिया गया साधन ठीक उल्टी वस्तु को ही सिद्ध कर देगा | यथा – सोऽयं परिणामवादः प्रामाणिक गर्हणमर्हति | न ह्याचेतनं प्रधानं चेतना नधिष्ठितं प्रवर्तते | सुवर्णादौ रुचकाद्युपादेन हेमकारादि चेतना हि एठा नोपलम्भेन नित्यत्वासाधक कृतकत्व वत्सुखदुःखमोहात्मनत्न्वितत्वादे --------- विरुद्धत्वात् |

दि हुई मान्यता स्वरुपासिद्ध भी है सुख – दुःख और मोह आन्तरिक भाव तथा मन द्वारा ज्ञेय है | इसीलिए ये जो चन्दन आदि बाह्य पदार्थ चक्षुरादि इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य है | इसीलिए चन्दन आदि दुसरे साधनों के रूप में ज्ञेय होते हैं तथा सुख – दुःखादि उनसे अलावा ज्ञेय रूप में प्रतीत होते हैं | इसी प्रकार स्वरुप सिद्ध हेतु है | जो हेतु पक्ष में न रहे जैसे यह कहा जाता है कि शब्द एक गुण हे क्योंकि वह आँखों देखा है यहाँ चाक्षुषत्व हेतु शब्द में नहीं रहता है | इसी प्रकार सुख – दुःख और मोह में जो हेतु प्रदर्शित किया गया है, वह उनमे असिद्ध हो जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है (2) “स्वरूपा सिद्धात्वाच्च | आन्तराः खल्वमी सुख- दुःख मोहा ब्राह्योम्यश्चन्दनादिभ्यो विभिन्न प्रत्यय वेदनीयेम्ने व्यतिरिक्ता अध्यक्षमीक्ष्यन्ते |”
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 6, Issue 2, February 2025
Published On 2025-02-15
Cite This शंकर अद्वैत वेदान्त दर्शन में विवर्तवाद एवं परिणामवाद - डॉ सुरेंद्र कुमार तोसावड़ा - IJLRP Volume 6, Issue 2, February 2025.

Share this